Saturday 25 June 2022

 

ଲୁହ ଏପରି ଏକ ସାଙ୍କେତିକ  ଭାଷା ଯାହାକି ସଂସାର ର ସବୁ ଭାଷା ର ଲୋକ ବୁଝି ପାରନ୍ତି । ଲୁହ ର ଭାଷା ବୁଝିବା  ପାଇଁ ବୟସ ଓ ଜ୍ଞାନ ର ଆବଶ୍ୟକତା ନ ଥାଏ । ଆବଶ୍ୟକ ହୁଅ ଟିକେ ମାନବିକତା । କରୋନା  ଭୂତାଣୁ ଯଦିଓ ସମସ୍ତଙ୍କ ମୁହଁ ରୁ ଛଡେଇ ନେଇଛି ହସ , ଏବଂ ଦେଇଛି ଅନେକ ଯାତନା, ତଥାପି ଆମ ଭିତରେ ଅନେକ  ବ୍ୟକ୍ତି ଅଛନ୍ତି  ଯୋମାନେ ନିଜ ଜୀବନକୁ ପାଣି ଛଡେଇ ଅନ୍ୟର ଦୁର୍ଦିନରେ ଛିଡା ହୁଅନ୍ତି । କରୋନା ରୁ ରକ୍ଷା ପାଇବା  ପାଇଁ  ଲକ ଡାଉନ ନାମକ ବିଷ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ପିଇବାକୁ  ପଡିଛି ଯଦିଓ ଲକ ଡାଉନ ପାଇଁ ଆମକୁ କରୋନା ରୁ କିଛି ଉପଶମ ମିଳିଛି କିନ୍ତୁ କରୋନା ରୋଗୀଙ୍କ କଥା କହିଲେ  ନ ସରେ ।

          ରୋଗୀଙ୍କ ମନ ରେ ଟିକେ ଖୁସି ଦେବା ପାଇଁ  ଆଗେଇ ଆସନ୍ତି କେତେ ଜଣ ବ୍ୟକ୍ତି ଏ ଘଡିସନ୍ଧି ମୂହର୍ତ୍ତରେ । ସେମାନଙ୍କ ଭିତରେ  ଡକ୍ଟର କେ ସି  ଅନ୍ୟତମ । ସେ ଅଳ୍ପଭାଷୀ  ,ଶାନ୍ତ ଚିତ୍ତ ଓ ସରଳମନା  ମଣିଷ ଟିଏ କୋବିଡ  ଡିଉଟି  ପାଇଁ ଗଲାବେଳେ  ମନରେ ଅନେକ ସଂଶୟ ,ସନ୍ଦେହ ବଦଳରେ ତାଙ୍କ ମନରେ ଥାଏ  ଜିଜ୍ଞାସା ଓ ସହୃଦୟତା । ଘରେ ପରିବାର କହିଲେ ସ୍ତ୍ରୀ ଓ 7 ବର୍ଷର  ଝିଅକିନ୍ତୁ ଏକାନ୍ତବାସ  ରେ ରହି ଡିଉଟି  କରିବାପାଇଁ ଆଗଭର ।ମନରେ ରୋଗୀ ସେବା କରିବା ପାଇଁ ଅନେକ ଉନ୍ମାଦନା । କୋବିଡ  ୱାର୍ଡ ରେ କିଛି ସମୟ ପାଇଁ ନିଜ ଚେୟାର ରେ ବସିବା ବୋଧେ ବହୁତ କମ ଲୋକ ଦେଖିଛନ୍ତିନିଜ ଧାର୍ଯ୍ୟ ଡିଉଟି ର ବହୁ ସମୟ  ପୁର୍ବରୁ ସେ ଆସିଯାନ୍ତି ୱାର୍ଡ କୁ । ଆଜି ସେ 141 ନମ୍ବର ବେଡ ର ଦିନମଜୁରିଆ ବୁଢା ଲୋକଟି ପାଇଁ  ବ୍ୟସ୍ତ ଅବସ୍ଥା  ତାର ସଙ୍କଟାପନ୍ନ । ଭେଣ୍ଟିଲେଟର  ରେ  ରହି ଆଜି କୁ 15 ଦିନ ହେଲାଣି ଆଜି ସେ ଆଉ ନାହିଁ ଦୁନିଆ ରେ  .....ଡକ୍ଟର ତାର ସମସ୍ତ  ଅନ୍ତିମ ସଂସ୍କାର କାର୍ଯ୍ୟ ନିଜେ କରି ଥିଲେ ଏବଂ ପରିବାର ବର୍ଗ ଙ୍କୁ ଆର୍ଥିକ ସହାୟତା  କରିଥିଲେ  । ତାଙ୍କର ସେ ସହାୟତା ମନୋବୃତ୍ତି ପାଇଁ  ଲୋକ କହନ୍ତି  କରୋନା ହୀରୋ ଡକ୍ଟର କେ ସି ବେହେରା ।ସେ ହେଲେ ମୋ କରୋନା  ହୀରୋ ।

ସମାଜ ର ଯେ କୌଣସି ବର୍ଗ ର  ହୋଉ  ନା କାହିଁକି କରୋନା  ମହାମାରୀ ରେ  ପ୍ରଥମଧାଡି ର କର୍ମଚାରୀଙ୍କୁ ଅନ୍ତର ରୁ  ବହୁତ ବହୁତ ଧନ୍ୟବାଦ।

Dillip kumar Badatya,PGT hindi,JNV Boudh.

भोलारम का जीव बोल रहा हूँ

 

             मैं भोलाराम का जीव बोल रहा हूँ ..

         (परसाई जी की रचनाओं का गद्य निरूपण)

परसाई जी ! हाँ ! मैं भोलाराम का जीव बोल रहा हूँ । मैं ने आपको पहचान लिया।भला ऐसा कौन-सा साहित्य प्रेमी है जो आपको न जानता हो ।आप 22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के छोटे से ग्राम जमानी में जमाने भर की चिंता करने और खबर लेने के लिए अवतरित हुए थे ।

परसाई जी ! हमें मालूम है,पका जन्म मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था ।आपका बचपन भय ,निराशा , गर्दिश में गुजरा  था ।पाँच भाई-बहनों में आप सब से बड़े थे। माँ की मृत्यु के मय छोटे भाई-बहन तो अबोध थे ।आप बहुत कम उम्र में ही मृत्यु  के अर्थ को समझ लिया था ।माँ की मृत्यु के बाद प के पिता के जीवन में केवल निराशा ,चिंता और निष्क्रियता ही शेष रह गयी थी।कहा जा सकता है कि पारिवारिक त्रासदी ने आपको अल्पवय में  ही पूरे समाज को समझने की जिज्ञासा प्रदान की।विपरीत परिस्थितियाँ चुनौतियाँ  बनकर उद्दीपन का कार्य जो करती है ।18वर्ष की आयु में वन विभाग में आपने नौकरी कर ली ।उसे छोड़ कर यत्र–तत्र मास्टरी  करते हुए नागपुर विश्वविद्यालय  से  हिन्दी में एम.. की उपाधि प्राप्त  की ।

परसाई जी !वैसे तो आप ऊपर से संतुलित दिखते  थे पर भीतर ही असीम पीड़ाओं को पालते  थे । इसलिए तो उस दिन आपकी लेखनी से निकला था – चूहों ने ही नहीं , मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सांपों  ने  भी मुझे बहुत काटा था ...पर जहर मोहरा मुझे पहले ही मिल गया था ।विषष्यविषमौषधम  अर्थात विष ही विष की औषधि है ।

मेरे लेखक!आप सुलझे हुए जीवन दर्शन के मालिक हैं । आप की लेखनी की  विशेषता केवल मनोविनोद या परिहास ही नहीं  ,बल्कि सभी रचनाओं  के पीछे एक साफ-सुलझी हुई वैज्ञानिक  जीवन  दृष्टि है । वस्तुतः आपके लेखन की शुरुआत ही मानवीय अहसास और मानवीय संबंधो की खोज से प्रारम्भ हुई थी ।जब हम आपके छतीस वर्षों के दीर्घकालिक रचनाओं  पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि आपकी रचनाओं में इस देश मे रहनेवाले करोड़ों साधारण जनों की आशा, आकाक्षाएं,जीवन संघर्ष और संभावनाएं व्यक्त हुई हैं ।आपने बेचारा कमन मैनकी  ज़िंदगी को बहुत करीब से  देखा और कमन मैन की तरह अपनी ज़िंदगी को जिया ।ज़िंदगी ऐसी कि  जिस में संघर्ष के साथ अभाव और अभाव के साथ सम्पूर्ण युग की  बौद्धिक समझ थी ।

   कमन मैन के लेखक परसाई जी ! आपके छत्तीस वर्षों के लेखन कर्म को यदि क्रमबद्ध ढंग से सँजोकर रखा जाए तो निश्चय  ही वह इस देश की  ज़िंदगी का विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन सकता है । आपकी रचनाओं में जहां जन साधारण से लेकर बड़े-बड़े राजनेता ,प्रशासक , बुद्धिजीवी , मध्यमवर्गीय, अध्यापक , डॉक्टर, वकील , बड़े बड़े राष्ट्रनायक , पदलोलुप राजनीतिज्ञ , साहूकार ,जमाखोरी , पूंजीपति ,जन आंदोलन,युवा-आक्रोश, सांप्रदायिक  दंगे और इन सबसे बेखबर बेचारा कमन मैन सभी एक साथ मिल जाएंगे। आपके सामने से गुजरता हुआ समय और संसार आपकी रचनाओं  में हाजिरी दे  रहा है ।

परसाई जी ! आप व्यंग्य विधा के महान रचनाकार हैं । व्यंग्य में विजयी भाव  होता है । आपको सर्वहरा वर्ग की जीत पर पूर्ण विश्वास  है ।यह विश्वास आपको मार्क्सवाद  से मिला है । पैने  व्यंग्य की प्रहारात्मक औजार से नावक की तीर की भांति अपने समय के जनशत्रुओं तथा व्यक्ति और समाज के नैतिक  दोषों पर मार्मिक प्रहार किया है । आपको पूर्ण विश्वास है कि एक दिन क्रांति होगी ही । आप लिखते हैं – ठुकराई धूल आँधी की राह देखती है जब वह सिर पर चढ़ सके ।शोषितों के प्रति उपहास और व्यंग्य आपकी रचनाओं के मूल में है   

परसाई जी !आपने आजादी के बाद घटित राजनीतिक और सामाजिक अंतर्विरोधों का पर्दाफ़ाश किया है ।भावुक आजादी और देश प्रेम के नीचे पलनेवाले भ्रष्टाचार ,पद लोलुपता और स्वार्थ तथा  सामाजिक राजनीतिक पाखण्डों के हकंडों के चित्र साधारण जन को दिखाने में  सफल रहे। उन्हें विकल्प में क्रांतिकारी विचारधारा का संदेश भी दिया ।कुलमिलाकर आप सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के प्रखर समीक्ष के रूप में उपस्थित होते हैं ।आपके व्यंग्य में मुहावरों और लतीफों के साथ नए सूत्र वाक्यों की  भरमार मिलती है ।जैसे पाप के हाथ में हमेशा पुण्य की पताका लहराती है।दानशीलता ,सीधापन ,भोलापन ,असल में एक तरह का इन्वेस्टमेट है ।गणतन्त्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टीका है ।सफलता की चाँदनी रात में चारों तरफ उल्लू  बोल रहे हैं । इस तरह आप तरह-तरह की उक्तियों  से लोगों को गुदगुदाते भी हैं आर कुरदते हुए उन्हें चौकन्ना भी करते जाते हैं ।  

परसाई जी ! आप ही के कारण व्यंग्य को हिन्दी गद्य में सक्षम और स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठा मिली । मानों आप और व्यंग्य लगभग एक दूसरे के पर्याय ही हो गए हैं ।आपकी भाषा सरल ,सहज और धारदार तो है  साथ ही साथ  सभी परिस्थितियों  का यथार्थ चित्रण करने में पूर्णतः सक्षम भी । हिन्दी उर्दू के सभी रूपों के दर्शन आपकी रचनाओं में होते हैं । आपने ही भारतेन्दु युगीन व्यंग्यात्मक निबंध लेखन की परंपरा  का कलात्मक  विकाश किया है ।प्रेमचंद के पश्चात भारत में सशक्त गद्यकार और प्रतिनिधि  लेखक के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान है ।

परसाई जी !आपके रचना संसार के कुछ चंद शीर्षकों  का गद्य निरूपण करते हुए मुझे गर्व महसूस हो रहा है ।

अरे भाई! आज के इन राजनेताओं की  क्या बात करते हो ?अब तो जैसे उनके दिन फिरे हुए हैं । आप सबने सुना ही होगा कि भूत के पांव पीछे होते हैंऐसी  ही स्थिति राजनीतिक गाँजा पीकर नफरत  की राजनीति करनेवाले राजनौतिक नौटंकी करने में निपुण राज नेताओं की है ।इन लोगों पर बेईमानी  की परत इस कदर चढ़ी हुई है मानो भ्रष्टाचार के सैंपल हो।इन राजनीतिक चुंगी बजानेवाले भ्रष्ट राजनेताओं के गले मे सदैव सदाचार की ताबीज लटकी हुई रहती है ।मजाल है कि इनके चित्रों परे कोई आरोपों की तिरछी रेखाएँ खींच सकें।कैलेंडर का मौसम जितना नहीं बदलता उस से कहीं ज्यादा अब राजनीतिक मंच पर दल बदलनेवाला नेताओं  की  भीड़ लगी रहती  है ।लगता है जैसे सर्कस मंडली का शासन है । भाई विज्ञापन संस्कृति है।अपनी-अपनी हैसियत के मुताविक भ्रष्टाचार वितरण कार्यक्रम में  ऐसे लोगों का खूब अभिनंदन भी  हो रहा है ।आश्चर्य की कोई बा नहीं है यह तो बेचारा कमन मैन के जीवन मे रोज़मर्रा का मामला है । सदगुरु का कहना है कि अब पगडंडियों का जमाना  नहीं रहा । तब की बात और थी कि  लोग एक दूसरे से बड़ी सरलता के साथ रानी नागफनी की  कहानी कहा  सुना करते थे ।ऐसी विकलांग  राजनीति  की परिस्थितियाँ निर्मित हो गयी है कि सर्वत्र ठिठुरता  हुआ गणतन्त्र  देखा जा सकता है ।अब तो विकलांग श्रद्धा  का दौर  चल पड़ा है ।बेचारा  भला आदमी  क्या करें ।गर्दिश के दिन है युग की पीड़ा का सामना सबको करना पड़ रहा है ।दर्द ही दवा है ।आम आदमी ज़िंदगी और मौत से हर दिन जूझ रहा है ।सेवा का शौक पालनेवाला  अनुशासन में न्याय का दरवाजा खटखटानेवाला, होनहार कहीं खो गया है । कहाँ है भारत भाग्य विधातादेशभक्ति का पालिश चुनाव के  ये अनंत आशावान अपनी-अपनी बीमारी लेकर वैष्णव की फिस की तरह फिसल रहे हैं । सुजलां-सुफलां वाले इस देश में गेहूं का सुख कहाँ है ? अन्न की मौत हो गयी है । बेचारी जनता को भीतर का घाव दिन-रात साल रहा  है ।  भूख के स्वर बधिर मुख्यमंत्री के पास नहीं पहुंच रहा है ।लोग इतनी-सी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि  ये सब अपना–पराया ,केवल पैसों  का खेल है ।नाम मात्र का समाजवाद है । अब तो आम लोगों में मूल्यों का विघटन इस कदर  हो गया है कि किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि ईमानदारी और सच्चाई रूपी सागर की  तट की खोज कर सके । विम्बना की  बात है कि स्वाधीनता के बाद सारे देश को शर्मनाक बीमारी  लग गयी । लोग अपने आप को काफी तटस्थ और बुद्धिवादी समझने  लगे हैं । अब तो निठल्ले  की डायरी और सामाजिक की डायरी में उन्हे  कोई  भी  अंतर  नजर नहीं  आ रही है । सांप्रतिक समाज में  दो नाक वाले  लोग और एक के भीतर दो आदमी का चारित्रिक लवादा ओढ़े लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है ।भेड़े और भड़िए का सहज अंतर मिटता जा रहा है । और तो और इस देश की जनता को तो देखिये नेताओं के इशारे पर वे भी हँसते है रोते  हैंमेरे इस देश की राजनीतिक दुर्दशा और शोषित जनता की दयनीय स्थिति को देखकर मैं भ्रष्ट नेताओं को खुली चुनौती देता हूँ और डंके की  चोट पर कहता हूँ  तुम लोगों से परसाई  जी  की तरह शिकायत मुझे भी हैअंत में देशवासियों के नाम संदेश में  मेरे सदगुरु  का कहना है –सुनो  भाई साधो ! इतना सब होने के बाद भी सब के प्रति हमारी यही कामना है कि सबको सम्मति दे भगवान । सबको सम्मति दे भगवान ।

ओ !मेरे आदरणीय परसाई जी । आप इस  धरा लोक से मनुष्य नामक प्राणी  के विविध रंगी चरित्र का चित्रण कर 10 अगस्त 1995 को परमतत्व में  विलीन हो गए । पर कमन मैन का प्रतिनिधि होकर भी मैं भोलाराम का जीव अब भी फाइलों के अंबार में दबा हुआ कराह रहा हूँ ।अब तो मुझे मुक्ति दिलाओ मेरे सद् गुरु , जैसे गोबर्द्धन दास को उनके गुरु महंत ने मृत्युपाश से मुक्ति दिलाया था । परसाई जी !आप ही का सहारा है ।आप  ही मुक्ति दिला सकते हैं ।

                         

                 copyright@दिलीप कुमार बड़त्या,पीजीटी(हिन्दी)

                                   ज न वि,पालझर,बौद्ध    

            

 

 

 

 

 

 

      

 

मिट्टी

  ଲୁହ ଏପରି ଏକ ସାଙ୍କେତିକ   ଭାଷା ଯାହାକି ସଂସାର ର ସବୁ ଭାଷା ର ଲୋକ ବୁଝି ପାରନ୍ତି । ଲୁହ ର ଭାଷା ବୁଝିବା   ପାଇଁ ବୟସ ଓ ଜ୍ଞାନ ର ଆବଶ୍ୟକତା ନ ଥାଏ । ଆବଶ୍ୟକ ହ...